पर्यावरण और सुरक्षा | हाइड्रोकार्बन महानिदेशालय (डीजीएच)

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पर्यावरण और सुरक्षा:


हाइड्रो कार्बन का अन्वेषण एवं उत्पादन एक बहु-आयामी कार्य है जिसके कारण प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है| इसीलिए यह आवश्यक है कि इस प्रतिकूल प्रभाव को कम किया जाए साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाय कि इन प्रतिरोधों की वजह से हाइड्रो कार्बन के अन्वेषण एवं उत्पादन की गतिविधियाँ प्रभावित न हो|
तदनुसार पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत  सरकार द्वारा कुछ विधानो का निर्धारण किया गया है जिनका पालन, पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील  क्षेत्रो मे काम कर रही  अन्वेषण एवं उत्पादन कंपनियों द्वारा  किया जाना आवश्यक होता है|
हाइड्रोकार्बन संबंधी कुछ चरणों में कतिपय प्राचलानों को प्रारंभ करने से पूर्व प्रचलानों से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का विस्तृत अध्ययन किया जाना आवश्यक होता है जिससे जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले प्रभावों की संवेदनशीलता को कम किया जा सके| डी जी एच पर्यावरण सुरक्षा के सभी प्रयासों को सुनिश्चित करता है|
डीजीएच एक स्वस्थ एचएसई संस्कृति के लिए जोर देती है। पीएससी द्वारा, अनुच्छेद 14 के तहत पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नियमों  के पालन की  व्यवस्था की गई है|
यह निम्न प्रवर्तनों का ठेकेदारों द्वारा पालन सुनिश्चित करता है|
• ठेकेदारों को पेट्रोलियम अन्वेषण  संबंधी कार्य करते समय पर्यावरण की सुरक्षा एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का ध्यान रखना आवश्यक होगा|
• आवश्यक एवं पर्याप्त कदम उठाने हेतु: तेल क्षेत्र एवं पेट्रोलियम उद्योग की नवीनतम प्रथाओ व मानकों के साथ आधुनिक उन्नत तकनीक व विधियों का उपयोग हो ताकि पर्यावरण को पहुँचने वाले नुकसान से बचा जा सके |
• पर्यावरणीय क्षति को बचना तथा जहाँ प्रतिकूल प्रभाव से बचा नहीं जा सकता है वहाँ इस तरह के नुकसान और उसके संपत्ति और लोगों पर परिणामी प्रभाव को कम करना |
•पेट्रोलियम गतिविधियो के प्रभाव की वजह से व्यक्ति  को चोट लगने अथवा संपत्ति की क्षति होने पर पर्याप्त मात्रा में  क्षतिपूर्ति |
•समय-समय पर लागू कानूनों की अपेक्षाओं और  सरकार की उपयुक्त अपेक्षाओं को पूरा करना|
निम्न ख़तरों के कारण जैविक व अजैविक पर्यावरण पर अन्वेषण एवं उत्पादन गतिविधियों के प्रभाव पड़ सकते हैं :

• बड़ी मात्रा में तेल और रसायन का बहाव
• अपशिष्ट का नियमित या आकस्मिक निस्सरण
• निर्धमन /  विस्फोटन
• गैसों का संस्फुरण
• प्रयुक्त  रसायन
• उत्पन्न  निस्तारी   का अनुचित निपटान
• भूमि धसकन  और दलदल भूमि का कम होना

पर्यावरण एवं वन  मंत्रालय(एमओईएफ), केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और अन्य सरकारी एजेंसिया, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और अन्य लागू विनियमों/ समझौतों  के अंतर्गत उपर्युक्त खतरों पर नजर रखती हैं और विनियमित करती हैं|
डीजीएच पेट्रोलियम संबंधी प्रचलानों के पर्यावरणीय पहलुओ. पर भी नज़र रखता है|
डीजीएच पर्यावरण के मुद्दों पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, सीपीसीबी और पर्यावरण के मुद्दों पर अन्य संबंधित प्राधिकरणों / संगठनों के साथ समन्वय करता है और इस तरह के मामलों पर पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय की सहायता करता है।

पर्यावरणीय  प्रभाव का आकलन संबंधी अध्ययन भूकंपीय सर्वेक्षण, वेधन कार्य और उत्पादन के लिए क्षेत्र के विकास के कार्यक्रमों को  प्रारंभ करने से पहले किया जाता है।
पर्यावरण प्रभाव आकलन का अध्ययन, भूकंपीय सर्वेक्षण, खुदाई के कार्य और उत्पादन के लिए क्षेत्र के विकास के प्रारंभ से पहले किया जाता है।

डीजीएच ने दो अध्ययन कार्य किए हैं, पहला गुजरात में केंद्रीय खनन शोध संस्थान के माध्यम से एक गैस क्षेत्र में भूमि घटाव का आकलन और दूसरा भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून के माध्यम से भारत के पूरे पूर्वी तट में ओलिव रिडले समुद्री कछुओं के प्रजनन पर प्रभाव का आकलन|

भूमि धसकन पर रिपोर्ट:-
डीजीएच हमेशा कोई भी कार्य हाथ मे लेने से पहले पर्यावरण से संबंधित मुद्दों के अनुकूल मानकों का ध्यान रखता है| डीजीएच ने  भीमा गैस क्षेत्र(ब्लॉक सीबी-ओएनएन -2000 / 2), सूरत गुजरात के पास, उथले आगार से तेल एवं प्राकृतिक गैस की निकासी से संभावित भूमि धसकन  के लिए एक अध्ययन  किया है, जहाँ गैस आगार उथली गहराई पर है (भूमि की सतह के स्तर से लगभग 200 मीटर), जहाँ भूमि धसकन  की बहुत अधिक संभावना है| दो विषय विशेषज्ञ एजेंसियाँ, केंद्रीय खनन शोध संस्थान (सीएमआरआई), धनबाद लेवलिंग सर्वेक्षण की विधि  का उपयोग कर रही है
तथा  एक अन्य आईआईटी मुंबई के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की टीम भूगणितीय डेटा प्राप्त करने के लिए जीपीएस  का उपयोग समानांतर  अध्ययन मे कर रही है| फरवरी 2004 से, गैस उत्पादन का कार्य शुरू होने से पहले भूमि धसकन निगरानी कार्यक्रम किया जाता है| कार्यक्रम भविष्य मे निगरानी के लिए जारी रहता है|
इसके अलावा ब्लॉक के उसी क्षेत्र एनएस-ए में  अतिरिक्त क्षेत्र एन एस-3 को गैस की उच्च निकासी के कारण अध्ययन में शामिल किया गया है|
अ) सीएमआरआई द्वारा अगस्त 2004 से जून 2005 तक किए गए भूमि घटाव के लिए की गयी जाँच से निम्नलिखित निष्कर्ष व सुझाव प्राप्त हुए है (रिपोर्ट की प्रति संलग्न है)
उथले गैस आगारों में 1.6-4.7 किलो ग्राम/ वर्ग सेमी  दबाव ह्रास के बाद कोई भी भूमि धसकन  गतिविधि नहीं हुई है। अनियमित भू-गतिविधियाँ काली मिट्टी जिसमे धसकन अणुवीक्षण स्टेशन स्थापित हैं, पर मौसमी प्रभाव की वजह से है|


सुरक्षा के दृष्टि से भूमि की सतह पर उथले गैस आगारों के दबाव में ह्रास के कारण होने वाले प्रभावों का वर्ष में तीन बार निरीक्षण करने की सिफारिश की गयी है क्योकि इस गैस आगार के ऊपर पाँच गाँव व सड़के हैं|

इसके साथ ही यह भी सिफारिश की गयी है कि क्षेत्र के सभी 30 ट्यूब वेल और खोदे गये कूपों का हर महीने निरीक्षण किया जाए, क्योंकि ये उथले गैस शोषण से होने वाले भू आंतरिक गतिविधियों का पहले ही संकेत दे देते है|
ब) इसके अलावा, नवंबर 2006 और नवंबर 2007 के बीच सीएमआरआई द्वारा किए गए भूमि धसकन जांच के बाद निम्न निष्कर्ष और सिफारिशें प्राप्त हुई:-(रिपोर्ट की प्रति संलग्न है)
उथले गैस आगरो मे धसकन 7.2-12.किलोग्राम /वर्ग सेंटीमीटर दाब ह्रास होने के कारण धसकन,ढाल,  समपीड़ित तथा तनन खिचाव गैस का दबाव व तन्यता क्रमश: 162 मिमी,1.73 एम एम/ एम, 1.42 एमएम/एम एंड 0.75 एमएम / एम था  

मौसमी बदलाव को छोड़कर जल स्तर डेटा में कोई बदलाव नहीं हुआ है।
 गैस आगार  के ऊपर पड़ने बसे सभी गाँव सुरक्षित हैं क्योकिभूमि की आंतरिक गतिविधियाँ सुरक्षित सीमा के अंदर हैं|
गांवों और कृषि क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए जमीन की सतह पर  गैस आगारो के दबाव की ह्रास से होने वाले प्रभावों की जॉच के लिए  वर्ष में तीन बार भूमि गतिविधियों पर नजर रखने की सिफारिश की गई है।

इसके साथ ही यह भी सिफारिश की गयी है कि क्षेत्र के सभी 30 ट्यूब वेल और खुदे हूएकूपों का हर महीने निरीक्षण किया जाए, क्योकि  ये उथले गैस शोषण के कारण आगरो पर उप- संस्तर को क्षति का पहले ही संकेत दे देते है
स ) आई आई टी मुंबई द्वारा फ़रवरी 2004 एवं मई 2006 में टीम द्वारा की गई  भूमि धसकन  की जाँच से निम्नलिखित निष्कर्ष एवं सिफारिशें प्राप्त हुई रिपोर्ट की प्रति संलग्न है
इस क्षेत्र के अध्ययन मे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि फरवरी 2004 से मई 2006 तक इन नौ आभियानो के दौरान केवल कुछ मौसमी स्थानीय नगण्य परिवर्तन ही देखने मे मिला है जो यह दर्शाता है की संपूर्ण क्षेत्र स्थिर है| साथ ही यह सिद्ध हो गया है कि, कुछ क्षेत्रों के व्यवहार की प्रवृत्ति , जो कि एक क्षेत्र विशेष मे देखी गयी थी, का मूल कारण मौसमी बदलाव हैं और कोई परिणामी भू-धसकन नही देखा गया है|
हालाँकि भविष्य मे इसकी कड़ी निगरानी आवश्यक है, खास तौर से उन  क्षेत्रों मे, जहा प्रवृत्ति मे बदलाव  और परिवर्तन संभावित है| उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि कोई भी परिणामी घटाव नही देखा गया है जबकि गैस आगर बहुत कम गहराई पर है(भूमि सतह से लगभग 200मीटर की गहराई पर) और गैस निकासी की दर बहुत ज़्यादा है |

ओलिव रिडले कछुए

 

पर्यावरण और वन मंत्रालय (एमओईएफ) ने समुद्री कछुओं पर खोज और विकास गतिविधियों के कारण पड़नेवाले प्रभाव की समीक्षा हेतु एक बहु-अनुशासनिक विशेषज्ञ समूह (एमईजी) का गठन किया है। एमईजी ने प्रवासी ओलिव रिडले समुद्री कछुओं पर सतत निगरानी के लिये अध्ययन के लिये सिफारिश की है। भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई), देहरादून को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की तरफ से अध्ययन को करने के लिए चयनित किया गया है और इस संबंध में डब्ल्यूआईआई और डीजीएच के बीच अनुबंध पर हस्ताक्षर किये गए हैं। निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा करने के लिये योजना बनाई गई है कि 70 प्लेटफार्म ट्रांसमीटर टर्मिनल (पीटीटी)) के साथ उपग्रह टेलीमेटरी ट्रैकिंग अध्ययन को दो साल की अवधि में पूरा किया जाए।
प्रजनन काल के दौरान ओलिव रिडले कछुओं की महत्वपूर्ण समुद्री निवास आवश्यकताओं का निर्धारण करने के लिए बहुतायत और स्थानिक वितरण का अनुमान लगाना।
भारत के पूर्वी तटीय जल में उपग्रह चिन्हित कछुओं की गतिविधियों का अध्ययन करना।
व्यस्क ओलिव रिडले कछुओं की लंबी दूरी के प्रवासी मार्ग को ट्रैक करना और उनके बसेरों के लिये भारत के पूर्वी तट पर गैर प्रजनन क्षेत्र निर्धारित करना।
डॉ. बी. सी. चौधरी, भारतीय वन्यजीव संस्थान के परियोजना प्रभारी और डॉ. सी. एस. कर, ओ/ओ के वरिष्ठ अनुसंधान वैज्ञानिक, वन्यजीव वार्डन, उड़ीसा अध्ययन का पर्यवेक्षण कर रहे हैं।
पीटीटी तैनाती अभ्यास के हिस्से के रूप में, मार्च और मई 2007 के बीच 30 मादा ओलिव रिडले कछुओं को टर्मिनल ट्रांसमीटरों (पीटीटी) के साथ तैनात किया गया। प्रत्येक चिन्हित किये गये कछुओं के स्थान एआरजीओएस सैटेलाइट ट्रैकिंग सिस्टम के माध्यम से प्राप्त हुए थे। सभी कछुए दक्षिण की तरफ चले गये थे और उनमें से कुछ ही श्रीलंका के दक्षिण पूर्वी तट पर पहुंचे थे और जब उनका अंतिम स्थान प्राप्त हुआ था तब वह हिंद महासागर में स्थानान्तरित होने के बाद दिखाई दिये थे। पीटीटी द्वारा निर्धारित कछुओं की गतिविधियों पर विश्लेषण दर्शाता है कि अधिकांश कछुए उड़ीसा तटों का लंबी अवधि के लिए उपयोग करते हैं। हालांकि, सभी पीटीटी ने सितम्बर 2007 के अंत तक संकेत देने बंद कर दिये थे। इस इतनी कम प्रतिक्रिया का कारण गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के कारण कछुओं की मृत्यु, बैटरी विफलता, एंटीना विफलता या अन्य तकनीकी खामियां हो सकती थी। हालांकि पीटीटी की गैर-प्रतिक्रिया के लिए सही कारण का पता लगाया जा रहा है। अगली 40 मादा ओलिव रिडले कछुओं की एक और बैच को अध्ययन के लिए 2008-09 के दौरान तैनात किया गया था।

समुद्र तट की रूपरेखाः समुद्र तटों पर बसेरों में भू आकृति विज्ञान की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए, उड़ीसा में बड़े पैमाने पर बसेरों का आकलन और बाद में निगरानी की गई। अगस्त 2007 के दौरान एकत्र की गई जानकारी में सभी तीन अध्ययन स्थलों में समुद्र तट पर अत्याधिक कटाव देखा गया। गहिरमाथा स्थल जहां पर 6 किमी के दायरे में वनस्पतियां नष्ट हो गई थी समुद्र का विस्तार/फैलाव देखा गया। दो स्थलों की तुलना में देवी कछुओं के अड्डों में तुलनात्मक रूप से कम कटाव देखा गया।
विकासात्मक गतिविधियां: अब यह सिद्ध तथ्य है कि समुद्री कछुओं को अपने प्रजनन स्थान के साथ बहुत अधिक लगाव है, और इसीलिये यहांतक कि अगर उनमें से एक कछुए की क्षति या कमी हो जाती है तब उसका पूरी आबादी पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। इसलिये, स्पष्ट रूप से ओलिव रिडले कछुओं के आवास की गंभीर आवश्यकताओं को समझना अत्यन्त आवश्यक हो गया था इसीलिये उड़ीसा के तट के साथ परंपरागत और विकासात्मक गतिविधियों और समुद्री कछुओं और उनके निवास ठौर-ठिकाने पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव के बारे में जाना जाए। उड़ीसा के समग्र समुद्र तट से 10 किमी की दूरी में फैले समूचे हिस्से का सर्वेक्षण किया गया और उनकी गतिविधियां मौजूदा या प्रस्तावित प्रत्यक्ष अवलोकन के साथ दूसरे अन्य तरीकों से जानकारियां प्राप्त कर प्रलेखित की गई हैं।
वहाँ उड़ीसा तटों के साथ मछली पकड़ने के कई छोटे और प्रमुख बंदरगाह और घाट, तटीय पर्यटन बुनियादी ढांचे, मछली पालन संवर्धन, तटीय राजमार्ग और सबसे महत्वपूर्ण समुद्र की ज्वार रेखा के करीब वृक्षारोपण देखे जाते हैं। शिपिंग चैनल द्वारा बड़े पैमाने पर पानी के तल पर की जाने वाली खुदाई के कारण गंदलापन और प्रकाश भेदन के साथ जल सतह के नीचे रहने वाले जीवों के निवास स्थान, समुद्री कछुए सहित समग्र खाद्य श्रृंखला पर संभावित दुष्प्रभाव पड़ सकता है। मछली पकड़ने के बंदरगाहों और घाटों की संख्या में वृद्धि का मतलब तटीय जल में मछली पकड़ने के अधिक से अधिक यंत्रचालित बेड़े और गतिविधियों में वृद्धि होना है जो आकस्मिक घटनाओं का कारण बन सकता है। तट के साथ वृक्षारोपण करने से न केवल निवास स्थान की कमी होगी बल्कि वह समुद्री कछुओं के निवास के लिये कई प्रकार से हानिकारक होगी। तटीय राजमार्ग भी सीधे समुद्री कछुओं को उनके मिलने वाले स्थान की कमी के कारण बुरी तरह प्रभावित करते हैं और उनके अंडे देने की गतिविधियों के दौरानचौबीसोंघंटे वाहनों की आवाजाही और तट पर मानव और जंगली हिंसक पशुओं की उपस्थिति से उन्हें परेशानी होती है, इन सबमें प्रकाश संबंधित समस्याओं को लक्षित नहीं किया गया है।
हालांकि, ऊपर दिये गये आकलन प्रकृति में प्रारंभिक हैं और उड़ीसा तट के साथ समुद्री कछुए के बसेरों के आसपास होने वाली विकासात्मक गतिविधियों के संभावित दुष्प्रभावों के बारे में गहराई से पर्यावरण अध्ययन करने की आवश्यकता है, जिसे एक बार फिर अक्टूबर 2007 से सितम्बर 2008 के दौरान शुरू किए जाने का प्रस्ताव है।
आगे, जैसा कि एमओईएफ द्वारा वांछित है, इस क्षेत्र में रहने वाले मछुआरों के सामाजिक आर्थिक मामलों को अध्ययन के दायरे में शामिल कर व्यापक किया गया और इस क्षेत्र में रहने वाले अन्य हितधारकों को उनके आपसी मतभेद सुलझाने और समुद्री क्षेत्र के संसाधनों का बिना अतिरिक्त कीमत दिये बुद्धिमत्ता से उपयोग करने के लिये उपयुक्त रणनीति विकसित की गई।

ईआईए अधिसूचना 2006:

पीडीएफ देखें
शीर्ष कानूनः.
तेल खानों के विनियम, 1984
पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस (तट से दूर संचालनों में सुरक्षा) नियम, 2008
www.envfor.nic.in